आज पितर विदा हुए। सनातन मान्यताओं के अनुसार सात पीढ़ी पितृपक्ष के और इतने ही मातृपक्ष के पितरों को याद किया जाता है। लेकिन मुझे सात तो क्या पितृपक्ष की तीन पीढ़ियों के ही नाम ज्ञात हैं, जबकि पड़दादी का नहीं। मेरी माँ तारा देवी सन 2000 में नहीं रही थीं। मैं तब कलकत्ते में था। वायुयान से लखनऊ और फिर कानपुर पहुँचा। मेरे वहाँ पहुँचने के बाद ही बिठूर में उनका अंतिम संस्कार हुआ। पिता रामकिशोर की मृत्यु 2008 में हुई। मैं तब नोएडा में था। उनकी बीमारी की सूचना रात दस बजे आई। साढ़े दस बजे निकला और सुबह पाँच बजे जब घर पहुँचा तो उनकी मृत देह मिली। कानपुर के भैरो घाट पर उनकी अंत्येष्टि हुई। दादा ठाकुर दीन 1978 में नहीं रहे और दादी कौशल्या 1985 में। पड़दादा मनीराम की मृत्यु 1953 में हुई थी। मेरे पैदा होने से दो वर्ष पूर्व। ये मनीराम सुकुल हमारे जैविक पड़दादा नहीं थे, हमारे दादा के पालक पिता थे। उनके ताऊ थे। अपने छोटे भाई और उसकी पत्नी के युवावस्था में निधन हो जाने पर हमारे दादा और उनकी दो बहनों को उनके ताऊजी ने पाला था। कहते हैं, वे हमारे दादा जी को अपनी पीठ में बांध कर हल चलाते थे। वे आजीवन अविवाहित रहे, अपने इन भतीजे और भतीजियों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। हमारे जैविक पड़दादा थे राम चरन सुकुल, जिनको धान की रोपाई करते समय सांप ने डस लिया और वे बचाए नहीं जा सके। उनकी मृत्यु के दसवें दिन उनकी पत्नी को भी सांप ने डस लिया और उनके प्राण-पखेरू भी तत्काल उड़ गए। उस समय मेरे दादा की आयु मात्र छह माह की थी। वह साल था 1902 का। तब उनके ताऊ जी ने इन बच्चों का लालन-पालन किया। उनकी आयु तब 44 वर्ष की थी। वे 1858 में पैदा हुए थे। दुःख की बात है, कि हमारी जैविक पड़दादी का नाम किसी को पता नहीं था। बस इतना पता है, कि वे कानपुर नगर के एक गाँव बिनौर (यह कानपुर-झाँसी रेल मार्ग पर है) के तिवारी वंश की थीं। क्योंकि हमारे दादा अपने ममाने ज़ाया करते थे। इनके पहले के किसी पुरखे का नाम याद नहीं। इसके अलावा मेरी दो चाचियाँ- रमादेवी और गायत्री को भी मैंने याद किया। इनकी क्रमशः 2018 और 2019 में मृत्यु हो गई थी। दो चचेरे भाइयों- कुलदीप और अवधेश को भी याद किया। ये दोनों ही मुझसे काफ़ी छोटे थे। कुलदीप की मृत्यु 2017 में कैंसर से हो गई थी। अवधेश, जो कि इटावा में टैक्सेशन का वकील था, 2019 में रेल दुर्घटना नहीं रहा। पिता जी की एक बुआ मूला को भी याद किया, क्योंकि विवाह के मात्र छह वर्ष बाद ही उनके पति की 1918 में प्लेग से मृत्यु हो गई थी।और वे आजीवन हमारे घर रहीं। इनकी एक बेटी भी थी। मूला बुआ की मृत्यु 1972 में मेरी ही गोद में हुई थी।
लेकिन दुःख की बात है, कि मातृपक्ष से मुझे अपने नाना-नानी का नाम पता नहीं। क्योंकि उन दोनों की मृत्यु मेरी माँ के विवाह के पूर्व हो गई थी। नानी की सांप के डसने से नाना की प्लेग से। लेकिन हिंदुओं में यह कैसी कुल परम्परा है, कि मातृपक्ष के लोगों का नाम याद नहीं रखा जाता। मेरे चार मामा थे। वे चारों अब नहीं रहे। एक मामा की मृत्यु गत वर्ष हुई। मेरी ससुराल में श्वसुर कन्हैया लाल दीक्षित की मृत्यु 1998 में हो गई थी तथा सास गोविंदी की 2009 में। उन सभी को याद किया। मेरे बड़े दामाद हर्षवर्धन पांडेय 2015 में हृदयाघात से नहीं रहे थे। उनको भी मैं इन पितरों के साथ ही याद करता हूँ। मैंने पहली बार इस पितृपक्ष में सुबह अपने घर की बॉलकनी में लगे पौधों में जल अर्पण कर याद किया। और तय किया, कि अब रोज़ पौधों को जल दूँगा। इसी के साथ एक पौधा रोज़ रोपूँगा। हम सब लोगों की पुण्यतिथियाँ मनाते हैं तो अपने पुरखों और प्रियजनों को भी इस पखवारे में याद करना चाहिए।
( लेखक शम्भू नाथ शुक्ल जनसत्ता अखबार के सम्पादक रहे हैं। )