नई कृषि नीति न सिर्फ़ किसान से उसकी उपज छीनेगी, वरन कृषि की विविधता भी नष्ट कर देगी। अभी तक हम कम से कम दस तरह के आनाज और बीस तरह की दालें तथा तमाम क़िस्म के तेलों के बारे में जानते व समझते थे। किंतु अब हम आनाज माँगेंगे तो गेहूं का आटा मिलेगा, दाल माँगने पर अरहर और तेल माँगने पर किसी बड़ी कम्पनी का किसी भी बीज का तेल पकड़ा दिया जाएगा। चावल के नाम पर बासमती मिलेगा। गेहूं, चना, जौ, बाजरा, मक्का, ज्वार आदि का आटा अब अतीत की बात हो जाएगी। यह भी हो सकता है, कि आटा अब नंबर के आधार पर बिके। जैसे ए-62 या बी-68 के नाम से। दाल का नाम पी-44 हो और चावल 1124 के नाम से। तब आने वाली पीढ़ियाँ कैसे ज़ान पाएँगी, कि गेहूं का आकार कैसा होता है या चने का कैसा? ज्वार, बाजरा, मक्का और जौ में फ़र्क़ क्या है? अरहर के अलावा मूँग, उड़द, मसूर, काबुली चना, राजमा अथवा लोबिया व मटर भी दाल की तरह प्रयोग में लाई जाती हैं। या लोग भूल जाएँगे कि एक-एक दाल के अपने कई तरह के भेद हैं। जैसे उड़द काली भी होती है और हरी भी। इसी तरह मसूर लाल और भूरी दोनों तरह की होती है। चने की दाल भी खाई जाती है और आटा भी। चने से लड्डू भी बनते हैं और नमकीन भी। पेट ख़राब होने पर चना रामबाण है। अरहर में धुली मूँग मिला देने से अरहर की एसिडीटी ख़त्म हो जाती है। कौन बताएगा, कि मूँग की दाल रात को भी खाई जा सकती है। ये जो नानी-दादी के नुस्ख़े थे, लोग भूल जाएँगे। लोगों को फसलों की उपयोगिता और उसके औषधीय गुण विस्मृत हो जाएँगे।
( जनसत्ता के संपादक रहे श्री शम्भू नाथ शुक्ल के Fb वाल से साभार )