यादों के झरोखे से….
मेरे ख्याल से बीस से बाइस-तेईस की उम्र में सब आत्ममुग्ध्ता के दौर से गुज़रते हैं. मेरी ज़िंदगी में भी ऐसा ही दौर आया है, 1965 से शादी न होने तक. आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा का दौर रहा. नहीं मालूम था आगे क्या होना है और न कोई डर और न ही फ़िक्र. स्कूल से लौटे. खाना खाया. जब दिल हुआ, साइकिल उठाई और चल दिये. मां पीछे से पूछती – कहां जा रहे हो? मुझे गुस्सा आता – पीछे से आवाज़ मत दिया करो. फ़िलहाल दोस्त के घर जा रहा हूं. लौट कर आता हूं।
लौटने का कोई टाईम फ़िक्स नहीं होता था. आठ भी बज जाते और दस भी. मां समझ जाती इवनिंग शो पिक्चर देखने निकल गया होगा और फिर बेफिक्र हो जाती. एक दिन रात के ढाई बज गए. माँ को फ़िक्र हुई. पिता जी टूर पर थे. ऐसे में अडोसी-पड़ोसी ही जगाये जाते थे. कॉलोनी में रहने वाले दोस्तों को भी गहरी नींद से जगाया गया. किसी ने कहा, फिलम-विलम गया होगा. लेकिन माँ ने काउंटर मारा – फिलम तो रात बारह बजे खत्म हो जाती है. बहुत ज़्यादा हुआ तो एक बज जाएगा. एक विरोधी टाइप के बंदे ने प्रस्ताव रखा कि – नाका थाने चलते हैं. हो सकता है लड़की-वड़की छेड़ने के अपराध में बंद हो. माँ ने उसे घुड़क दिया – अपनी तरह समझ रखा है. तरह तरह के लोग, तरह तरह के कयास. तय हुआ चार लड़कों का एक जत्था तैयार किया जाए जो शहर भर का राउंड लगाए और ज़रूरत समझने पर थाने भी झाँक ले, मेडिकल कॉलेज, सिविल हॉस्पिटल और बलरामपुर अस्पताल भी देख ले. लड़कों ने अपनी साइकिल उठाई ही थी कि हम नमूदार हो गए. उस वक़्त तीन बज रहा था. पहले तो बहुत हड़काई हुई. सबसे ज़्यादा तो नीचे रहने वाले त्रिवेदी जी हड़काया. वो नॉर्दन रेलवे मेंस यूनियन के कद्दावर नेता भी थे.
हमने बताया कि निशात सिनेमा में हाफ रेट पर ‘नया दौर’ लगी थी. बीच में बिजली चली गयी थी. दो घंटे बाद आयी. (मित्रों उस दौर में जनरेटर का कोई प्राविधान नहीं था.) त्रिवेदी जी दहाड़े – तो फिलम बीच में छोड़ आते. हमने बताया – ये पॉसिबल नहीं था क्योंकि करीब दो सौ साईकिलों के बीच में मेरी साइकिल फँसी थी. लेकिन त्रिवेदी जी यूँ ही हमें छोड़ने के मूड में नहीं थे और न ही माँ. मोहल्ले वालों का तो टैक्स फ्री एंटरटेनमेंट हो रहा था. त्रिवेदी जी ने बस एक थप्पड़ रसीद नहीं किया. बाकी सब सुना दिया. और फिर सुबह छह बजे तक खड़े रहने की सजा दी. शुक्र है गर्मी के दिन थे. ठंडक होती तो कुड़कुड़ा जाते.
उस दिन के बाद से हम जहाँ भी गए, माँ को बता कर ही. मतलब ये बताने का कि उन दिनों पड़ोसी भी गलत बात पर डांटने का बराबर हक़ रखते थे.
( वरिष्ठ फिल्म समीक्षक वीर विनोद छाबरा )