Friday, March 14, 2025
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भगवान विश्वेश्वर के ज्योतिर्मय स्वरूप की पूजा का दिन है महाशिवरात्रि

शिवरात्रि पर विशेष

शिवरात्रि से शिव पार्वती विवाह का कोई संबंध नहीं

आचार्य संजय तिवारी

मार्गशीर्ष मास के आर्द्रा नक्षत्र के समय भगवान शिव के ज्योतिर्मय स्तंभ लिंग स्वरूप उमापति के प्राकट्य की कथा श्री शिवमहापुराण के विश्वेश्वर संहिता में विस्तार से मिलती है। यह तिथि महा शिवरात्रि की है। इसी तिथि के लिए स्वयं भगवान शिव ने कहा है कि जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होने पर मुझ उमापति का दर्शन करता है अथवा मेरी प्रतिमा या लिंग की झांकी का दर्शन करता है वह मुझे कार्तिकेय से भी ज्यादा प्रिय है। इसके आगे की कथा लंबी है।
प्रामाणिक तथ्य यही है कि शिवरात्रि के दिन का शिव पार्वती के विवाह से कोई संबंध नहीं है। यह तिथि भगवान शिव के ज्योतिर्मय स्वरूप की पूजा की तिथि है।
शिवमहापुराण की रुद्र संहिता वर्णित करती है कि भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन मार्गशीर्ष माह में हुआ था, जो अंग्रेजी कैलेंडर के नवंबर या दिसंबर माह में आता है। फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उनका विवाह नहीं हुआ था। लोग उनके विवाह को भी महाशिवरात्रि से जोड़ देते हैं। शिवरात्रि के दिन शिवलिंग प्रकट हुआ था। फाल्गुन मास की त्रयोदशी की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से जगत में विख्यात हुई। वस्तुतः यह भगवान शिव के प्राकट्य की तिथि है। स्वयं भगवान शंकर ने कहा कि मेरी समस्त तिथियों में यह रात्रि सबसे पवित्र और मुझे सबसे अधिक प्रिय है। भगवान शंकर के प्राकट्य की तिथि को किस प्रकार से विवाह की तिथि के रूप में प्रचारित प्रसारित किया गया। इसे रोकने का कभी किसी ने कोई प्रयास भी नहीं किया। विश्वेश्वर संहिता और ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाव वाले ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए थे। पहली बार शिवलिंग की पूजा भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी द्वारा की गई थी। इसलिए महाशिवरात्रि पर्व को भगवान शिव के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है और शिवलिंग की पूजा की जाती है।

माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशिशिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ॥ (ईशान संहिता)

शिव पार्वती विवाह

शिव महापुराण के रुद्रसंहिता के पार्वती खंड के 35वें अध्याय के श्लोक संख्या 58, 59, 60 और 61 में शिव पार्वती के विवाह का शुभ मुहूर्त श्री वशिष्ठ जी ने स्वयं निर्धारित कर वर्णित किया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं:

सप्ताहे समतीते तु
दुर्लभेति शुभे क्षणे ।
लग्नाधिपे च लग्नस्थे
चन्द्रेस्वत्नयान्विते ।। 58।।
मुदिते रोहिणीयुक्ते
विशुद्धे चन्द्रतारके ।
मार्ग मासे चंद्र वारे
सर्वदोष विवर्जिते।। 59।।
सर्वसदग्रह संसृष्टे
सदग्रह दृष्टि वर्जिते।
सदपत्यप्रदे जीवे
परिसौभाग्य दायिनी।। 60।।
जगदंबा जगदपित्रे
मूलप्रकृतिमिश्वरीम।
कन्या प्रदाय गिरिजां
कृति त्वं भव पर्वत।।61।।

सृष्टि में पृथ्वी पर ज्ञानियों में श्रेष्ठ मुनिशार्दूल श्री वशिष्ठ जी ने पर्वतराज से कहा है कि एक सप्ताह के बीतने पर एक दुर्लभ उत्तम शुभयोग आ रहा है। उस लग्न में लग्न का स्वामी स्वयं अपने घर में स्थित है और चंद्रमा भी अपने पुत्र बुध के साथ स्थित रहेगा। चंद्रमा रोहिणीयुक्त होगा। इसलिए चंद्र तथा तारागणों का योग भी उत्तम है। मार्गशीर्ष का महीना है। सर्वदोषविवर्जित चंद्रवार का दिन है, वह लग्न सभी उत्तम ग्रहों से युक्त तथा नीच ग्रहों की दृष्टि से रहित है। उस शुभ लग्न में बृहस्पति उत्तम संतान तथा पति का सौभाग्य प्रदान करने वाले हैं। हे पर्वत श्रेष्ठ! ऐसे शुभ लग्न में अपनी कन्या मूल प्रकृति स्वरूपा ईश्वरी जगदंबा को जगतपिता शिव जी के लिए प्रदान कर के आप कृतार्थ हो जाएंगे।

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