महान समाज सुधारक ज्योतिबाफुले की पुण्यतिथि आज
(वरिष्ठ पत्रकार अजय श्रीवास्तव)
प्रबोधक,विचारक,समाजसेवी,लेखक,दार्शनिक तथा क्रांतिकारी ज्योतिराव गोविंदराव फुले की पुण्यतिथि है।आज के हीं दिन आप इस नश्वर शरीर को त्यागकर अनंत में विलीन हो गए थे।आपने अपना संपूर्ण जीवन स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने,बाल विवाह का विरोधकरने,विधवा विवाह का समर्थन करने में लगा दिया।आप समाज को कुप्रथा और अंधश्रद्धा के जाल से मुक्त करना चाहते थे और आप अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब भी रहे।
गौरतलब है कि उन दिनों महाराष्ट्र में जाति-प्रथा बडे हीं विभत्स रूप में फैली हुई थी।पिछडों-दलितों का बडे पैमाने पर शोषण किया जा रहा था।सशक्त ब्राह्मणों के खिलाफ आवाज उठाना मगरमच्छ के मुँह में सर डालने जैसा था मगर ज्योतिबाफुले कुछ अलग मिट्टी के बने थे।उन्होंने ब्राह्मणों के वर्चस्व को कई बार चुनौती दी और अंततः वे अपने मकसद में कामयाब भी रहे।
ज्योतिबाफुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था।जब वे एक साल के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया।ज्योतिबाफुले का लालनपालन एक आया ने किया था।मूलरूप से फुले परिवार महाराष्ट्र के सतारा का रहनेवाला था मगर रोजगार की तलाश में वे कई पीढी पहले पुणे में बस गए।इनका मुख्य काम फूल बेचना था और माली के रूप में कई मंदिरों में अपनी सेवाएं देते थे।फूल बेचने के कारण इनका सरनेम फुले पड गया।पढ़ने-लिखने में बेहद मेघावी ज्योतिबा की आरंभिक शिक्षा मराठी स्कूल में हुई।आरंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद आपका दाखिला एक प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल में कराया गया।कहने को तो ये मिशनरी स्कूल था मगर इसका प्रबंधन सशक्त मराठी ब्राह्मणों के हाथ में था और वे नहीं चाहते थे कि उनके स्कूल में कोई पिछड़ा-दलित लड़का पढ़े।स्थानीय प्रशासन के विरोध के बावजूद उस स्कूल से सभी पिछड़े-दलित छात्रों को निकाल दिया गया।ज्योतिबा की पढाई बीच में हीं रूक गई।
ज्योतिबाफुले के पडोसी और उनके पिता गोविंदराव के नजदीकी मित्र उर्दू के शिक्षक गफ्फार बेग के कहने पर उनका दाखिला फिर मिशनरी स्कूल में हुआ।उन दिनों पढाई पर भी अगडों का हीं कब्जा था,वे हीं अव्वल आते थे।ज्योतिबा ने जमकर पढाई की और वार्षिक परीक्षा में अव्वल आए।छोटी जाति के एक लडके ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोडा था और ये उन दिनों बहुत बडी घटना थी।ज्योतिबा ने अंग्रेजी में शत प्रतिशत नंबर लाकर स्कूल के सारे किर्तिमान को तोड़ डाला था।
पढाई के दौरान हीं उन्होंने ये तय कर लिया था कि वे हिंदूधर्म की विसंगतियों,ऊँच-नीच,जात-पात,समाज में फैले अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाएंगे।पढाई के दौरान हीं उनका विवाह सावित्रीबाई से हो गया,जो बेहद कम पढी लिखी थीं।उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित करने का अभियान अपने घर से हीं शुरू किया।उन दिनों लडकियों को पढ़ने के लिए कोई स्कूल नहीं था।संकीर्ण मानसिकता वाला समाज लडकों के स्कूल में लड़कियों को नहीं भेजते थे।गहन विचार कर ज्योतिबा ने पुणे में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला।वे जानते थे कि कोई भी सुधार तब तक अपने मुकाम पर नहीं पहुंच सकता,जब तक समाज शिक्षित न हों।स्त्रियों को अपने अधिकार की जानकारी होना,वे महत्वपूर्ण मानते थे।समाज जागरूक तभी हो सकता है जब वह शिक्षित हो।
स्कूल तो खुल गया मगर खोजने पर भी कोई महिला टीचर नहीं मिल रही थी।समाज के उच्चवर्ग में जो शिक्षित लड़कियां या स्त्रियाँ थीं,वे पितृसमाज के डर से दहलीज नहीं पार कर पा रहीं थीं।ज्योतिबाफुले ने अपनी पत्नी को स्कूल में टीचर बना दिया।कुछ दिनों में दो विधवा स्त्री जो पढीं लिखीं थीं,स्कूल आकर पढाने लगीं।इससे उत्साहित होकर ज्योतिबाफुले ने महाराष्ट्र के कई जिलों में लड़कियों के लिए स्कूल बनाए।
महात्मा फुले ने भारत के उज्जवल भविष्य के लिए सदैव ज्ञान आधारित और सतत चिंतन करनेवाले समाज की परिकल्पना को प्रस्तुत किया था।वे हर हाल में समाज को शिक्षित करना चाहते थे खासकर उस समय उपेक्षित लडकियों को।पृतसत्ता आधारित समाज में हमेशा लडकों का हीं बोलबाला था और उस समय ये माना जाता था कि आपका पुत्र हीं आपका उत्तराधिकारी होगा,चाहे घर में छटाक भर अनाज का टोटा क्यों न पडा हो।
ज्योतिबाफुले ने अछूतोद्धार के लिए सत्यशोधक समाज स्थापित किया था।उनका ये भाव देखकर सन् 1888 में उन्हें महात्मा की उपाधि दी गई थी।ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना हीं विवाह आरंभ कराया और इसे बंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली।ज्योतिबाफुले के इस कदम से ब्राह्मण समाज बेहद आक्रोशित था और उसने उनके पिता गोविंदराव पर दबाव बनाकर ज्योतिबा और उनकी पत्नी सावित्रीबाई को घर से निकाल दिया मगर उनके कदम तनिक भी न डगमगाए।वे अपने मिशन पर अडिग थे।
उनके महान कामों को मान्यता ब्रिटिश-भारत शासन ने भी दिया।साल 1883 में स्त्रियों को शिक्षा प्रदान कराने के महान कार्य के लिए उन्हें तत्कालीन ब्रिटिश-भारत सरकार द्वारा “स्त्री शिक्षण के आद्याजनक” कहकर गौरव किया।ज्योतिबाफुले ने बहुत सी किताबें लिखीं जिसमें गुलामगिरी,तृतीय रत्न,छत्रपति शिवाजी,राजा भोसले का पखडा,किसान का कोडा,अछूतों की कैफियत आदि प्रमुख हैं।वे किसानों के अधिकारों की लडाई बडी शिद्द्त से लड़ते थे।आपके अथक प्रयास से हीं एग्रीकल्चर एक्ट पास हुआ था।
आपके प्रयासों को मान्यता डा.भीमराव अंबेडकर से भी मिली।अंबेडकर ज्योतिबाफुले के बहुत बडे समर्थक थे और उन्हीं से प्रेरित होकर उन्होंने दलित समाज के उत्थान के लिए बहुत से कामों को किया था।वे कहते थे,”महात्मा फुले मार्डन इंडिया के सबसे महान शुद्र थे जिन्होंने पिछडी जाती के हिंदूओं को अगडी जाती के हिंदुओं का गुलाम होने के प्रति जागरूक बनाया।जिससे भारत के लोगों में विदेशी हुकूमत से स्वतंत्रता की तुलना में सामाजिक लोकतंत्र कई अधिक महत्वपूर्ण है।”
आज ज्योतिबाफुले की पुण्यतिथि है,संपूर्ण राष्ट्र नतमस्तक होकर आपके समाज के प्रति योगदान को नमन कर रहा है।ज्योतिबाफुले युग पुरूष थे और ऐसी महान शख्सियत सदियों में पैदा होती हैं।