मजदूर दिवस पर विशेष
मजदूरों के हक की लड़ाई भी उन देशों में अधिक तीव्र रही जिन्हें पूंजीवादी देश कहा जाता है. शायद इसलिए भी क्योंकि मजदूरों की जरूरत उन्हें अधिक थी. प्रतिस्पर्धा की मार्केट में बने रहने के लिए मांग के अनुरूप माल की तैयारी और गुणवत्ता की परख के लिए उन्हें कुशल श्रमिक चाहिए थे.
मजदूर दिवस: समाजवादी या कम्युनिस्ट नहीं, पूंजीवादी देशों ने लड़ी मजदूरों के हक की लड़ाई
मजदूर दिवस: प्रतीकात्मक तस्वीर.
शंभूनाथ शुक्ल
क्या यह दिलचस्प नहीं कि पूरे विश्व में न्यूनतम मजदूरी देने के मामले में कोई भी समाजवादी या कम्युनिस्ट देश आगे नहीं है. बल्कि सबसे अधिक मजदूरी उस देश में मिलती है, जिसकी गणना पूँजीवादी देशों में की जाती है. यूरोप के लक्जमबर्ग में प्रति घंटा न्यूनतम मजदूरी 17.83 यूरो अर्थात् कोई 1591 रुपए है. इसके विपरीत रूस में यह 7.25 डॉलर है यानी 605.14 रुपए. चीन में एक मजदूर को प्रति घंटा न्यूनतम मजदूरी 26.4 युआन मिलता है जो करीब 310 रुपए के बराबर है. अमेरिका में मज़दूरी की दर 15 डॉलर प्रति घंटा है. जो 1252 भारतीय रुपए हुआ. कनाडा में मजदूरी 15.5 कनाडाई डॉलर प्रति घंटा मिलती है, जो 942 रुपए के बराबर है. आस्ट्रेलिया में न्यूनतम मजदूरी अमेरिका के बराबर है.
मजे की बात है कि मजदूरों के हक की लड़ाई भी उन देशों में अधिक तीव्र रही जिन्हें पूंजीवादी देश कहा जाता है. शायद इसलिए भी क्योंकि मजदूरों की जरूरत उन्हें अधिक थी. प्रतिस्पर्धा की मार्केट में बने रहने के लिए मांग के अनुरूप माल की तैयारी और गुणवत्ता की परख के लिए उन्हें कुशल श्रमिक चाहिए. इसलिए श्रम कल्याण और श्रमिकों को अच्छा पैसा देने की होड़ खुली अर्थ व्यवस्था वाले देशों में अधिक होती है. यही कारण है कि मजदूरों के हक की लड़ाई भी उन्होंने ही शुरू की थी, जिन्होंने अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए किसान और वंचित तबके को मजदूरों के रूप में रखा. यह एक विरोधाभास जैसा दिखता है किंतु है सच. 1886 के पहले तक मजदूर एक गुलाम होता था. न उसके काम के घंटे निर्धारित थे न श्रमिक कल्याण जैसी कोई बात उठती थी. पूरी दुनिया में उपनिवेशवादी देशों के लोग मजदूरों से जानवरों की तरह काम कराते. कोई छुट्टी नहीं कोई तय वेतनमान नहीं, मालिक जो दे वही रखो. मजदूर कहीं कोई अपनी शिकायत नहीं कर सकता था.
मजदूरों में आई चेतना
धीरे-धीरे इन मजदूरों में चेतना आई. उनकी भी नई पीढ़ी कुछ सरकारी सुविधाओं, सुधारवादी कार्यक्रमों और लिबरल नेताओं के संपर्क में आई. इसीलिए पहली मजदूर क्रांति शिकागो में हुई. 1886 में मजदूरों ने काम के घंटे आठ करने को ले कर प्रदर्शन किया. काम बंद किया. शिकागो के हेमार्केट स्कवायर में प्रदर्शनकारियों और पुलिस में हिंसक टकराव हुआ. यह घटना मई महीने में हुई इसीलिए इसे मई दिवस के रूप में याद किया जाता है. हालांकि अमेरिका और कनाडा में इसे मज़दूर दिवस के रूप में नहीं मनाते हैं. वहां मजदूर दिवस सितंबर महीने के पहले सोमवार को मनाया जाता है. भारत में मजदूर दिवस एक मई को आयोजित होता है. इसकी शुरुआत एक मई 1923 से हुई. तब लेबर किसान पार्टी ऑफ़ इंडिया ने इसे मनाया था. तब से एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाने लगा.
यह थोड़ा विचित्र लगेगा मगर सत्य यही है कि पूंजीपतियों ने ही भारत में सबसे पहले प्रगतिशील कदम उठाए. उन्होंने ही भारत के जातिवाद को चुनौती दी थी. तथा ख़त्म करने की पहल की. महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर के बहुत पहले. इन दोनों का योगदान सिर्फ इतना है कि इन्होंने मजदूरों के अंदर की इस चेतना को पकड़ा और अपने-अपने हिसाब से उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया. ये दोनों नहीं भी होते तो भी औद्योगिक पूंजीवाद जातिवाद को ध्वस्त कर देता. यह एलेन एंड कूपर का ही कमाल था कि कानपुर में लाल इमली और एल्गिन मिल में मजदूरों की भरती शुरू हुई तो इसका लाभ उन जातियों को अधिक मिला जो नई बंदोबस्त प्रणाली के चलते अपनी खेती गंवा बैठे और भागकर शहर आ गए. मगर सोलह-सोलह घंटे काम नहीं कर सकने के कारण ब्राह्मण तथा अन्य सवर्ण जातियों के मजदूर जहां पान या पानी बेचने लगे अथवा बार-बार भागकर गांव जाने लगे वहीं दलित जातियों के मजदूरों ने सोलह घंटे काम किया.
मजदूरी से पैसे बचाकर खरीदी जमींदारी
मजूदरी से पैसा बचाकर इन जातियों के लोगों ने 1857 के बाद जमींदारी भी खूब खरीदीं. कानपुर में ही हीरामन और सांवलदास भगत इसके प्रमाण हैं. वह तो शिकागो के मजदूरों की शहादत का कमाल था कि पूरे विश्व में मजदूरों के काम के घंटे और मजदूरी की दरें निर्धारित की गईं. तब भारत की मिलों में अन्य बिरादरी के मजदूर भी आए. खासकर ब्राह्मण और यादव. कानपुर की ट्रेड यूनियन्स में इन जातियों का प्रभुत्व दिखाई पड़ता रहा है. चाहे वह हिंद मजदूर पंचायत रही हो या एटक अथवा इंटक या बीएमएस. जब तक ट्रेड यूनियन्स रहीं और मजदूर आंदोलन प्रभावी रहा कानपुर में यह जातिवाद टूटता दिखाई पड़ता रहा. एक साथ एक ही चबूतरे पर बैठकर खाना खाना और एक ही पंप से पानी पीना. पर सत्तर के दशक से जब मैन्युफैक्चरिंग की बजाय सेवा प्रदाता कंपनियाँ शुरू हुईं तो यह प्रगति काल भी ध्वस्त हो गया.
इस औद्योगिक पूंजीवाद के पतन के साथ ही जातिवाद फिर फैला. क्योंकि मजदूरों में जातिवाद फैलाकर ही नए मिल मालिक अपना साध्य सिद्ध कर सकते थे. मई दिवस की सारी चेतना ध्वस्त होने लगी और जिस कानपुर में हर साल एक मई को कोई न कोई राष्ट्रीय नेता आकर फूलबाग में भाषण देता था उसी कानपुर में मई दिवस पर स्वदेशी काटन मिल बंद कर दी गई और आज न तो कोई मई दिवस जानता है न कानपुर के औद्योगिक विकास को जाति विरोधी नजरिये से देख पाता है. इजारेदार पूंजी ने पूंजीपतियों की राष्ट्रीय चेतना को तो कुंठित किया ही मजदूरों को भी बाट दिया. और इसका श्रेय न चाहते हुए राजनीतिकों को ही देना पड़ता है. भले हमारी भक्ति हमें यह करने से बरजे. सत्य तो यही है कि हमारे राष्ट्रीय नेताओं के अंदर की राष्ट्रभक्ति निज स्वार्थ तक सीमित हो गई.
मई दिवस और कानपुर का फूलबाग मैदान
मजदूरों के अंदर की राष्ट्रवादी चेतना देश के अंदर के वैविध्य के बीच सामंजस्य बना कर चलती है. हर साल कानपुर के फूलबाग मैदान में मई दिवस पर कोई बड़ा मजदूर नेता आकर रैली करता था. मैंने स्वयं वहाँ तीन नेताओं के भाषण सुने हैं. एक ईएमएस नंबूदरीपाद का और दूसरा कामरेड ज्योति बसु का तथा तीसरा बीटी रणदिबे का. पहले वाले दोनों ने कानपुर की रैली में अपना भाषण अंग्रेजी में दिया वहीं रणदिवे ने हिंदी में दिया था. लेकिन जहां ईएमएस नंबूदरीपाद ने कहा कि उनको बेहद दुख है कि एक ही देश होते हुए भी उन्हें अपनी बात रखने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ रहा है. उन्होंने कहा था कि उन्हें मलयालम आती है पर मलयालम के लिए दुभाषिया यहां नहीं ला सके. इसके विपरीत कामरेड ज्योति बसु ने कहा कि देश में संपर्क भाषा चूंकि अंग्रेजी है इसलिए वे अपनी बात अंग्रेजी में रख रहे हैं.
मजे की बात कि दोनों के कानपुर आगमन के मध्य करीब बीस साल का फर्क था. पर दुभाषिया एक ही आदमी था. शायद उसे ही अंग्रेजी का हिंदी करना आता होगा. नंबूदरीपाद हकलाते थे पर वे इस तरह धाराप्रवाह डेढ़ घंटे तक बोलते रहे कि लगा ही नहीं कि कामरेड हकलाते भी हैं. कामरेड नंबूदरीपाद उन शख्सियतों में से थे जिन्होंने देश में सबसे पहले एक राज्य में कम्युनिस्ट सरकार बनाई और उसे कांग्रेस की जवाहर लाल नेहरू सरकार ने गिरवा दिया था. क्योंकि भूमि सुधार का वे ऐसा बिल लाना चाहते थे जो सारे कांग्रेसी सामंतों को ध्वस्त कर डालता. कामरेड ज्योति बसु पश्चिम बंगाल में दो बार उप मुख्यमंत्री रहे और 1977 से 2000 तक मुख्यमंत्री भी. पर हिंदी के बारे में उनके विचारभद्रलोक सरीखे थे. उनके राज में विनयकृष्ण चौधरी ने जो भूमि सुधार किया उसकी फसल अब ममता बनर्जी काट रही हैं.
ऐसे साफ हुईं कम्युनिस्ट पार्टियां
दो कम्युनिस्ट नेता दोनों ही भाकपा से माकपा में आए पर एक में हिंदी न जानने के लिए शर्मिन्दगी और दूसरे के अंदर हिंदी के अज्ञान पर भद्रलोक जैसा अहंकार व हिंदी भाषियों के प्रति तिरस्कार. यही कारण रहा कि उत्तर प्रदेश के सारे उन स्थानों से कम्युनिस्ट पार्टियां साफ हो गईं जहां पर कभी कामरेड के मायने ही होता था जीत पक्की और उस कानपुर में तो कम्युनिस्ट आंदोलन की जड़ें ही समाप्त हो गईं जहां पर कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ और कानपुर बोल्शेविक षडयंत्र केस में जहां एमएन राय, श्रीपाद अमृत डांगे, कामरेड मुजफ्फर हसन और शौकत उस्मानी पर मुकदमा चला. कामरेड शौकत उस्मानी उन मुसलमानों से थे जिन्होंने खिलाफत आंदोलन का विरोध किया था और गांधीजी द्वारा इस आंदोलन को समर्थन देना मुसलमानों को कुएं में फेक देने के समान कहा था. कामरेड शौकत उस्मानी की पुस्तक “मेरी रूस यात्रा” से पता चलता है कि उस समय पढ़ा-लिखा और संजीदा मुस्लिम नेता अपने हिंदू साथियों की तुलना में कहीं ज्यादा उदार और सेकुलर हुआ करता था. ( साभार : R bharat)