साहित्य को समाज का दर्पण होना चाहिए अर्थात् समाज के चेहरे को हूबहू दिखाने के सामर्थ्य से सम्पन्न। सिर्फ इतना ही नहीं अपितु समाज को उन्नतशील और नवीन राह देना भी साहित्य का दायित्व है। इसलिए एक साहित्यकार को ग्राह्य हृदयी होने के साथ – साथ दूरदर्शी भी होना चाहिए जिससे वह समाज को समझ सके और सही दिशा दे सके। बहुत अफ़सोस के साथ इस सत्य को स्वीकार करना पड़ रहा है कि आज का साहित्यकार तटस्थ रहने का दिखावा करके ‘सेफ जोन’ का आदी होता जा रहा है।
साहित्यिक सम्मान और उपाधियाँ ज्यादातर राजनीतिक गलियारे में पैदा होती हैं इसलिए आज के दौर का तथाकथित साहित्यकार ‘नेताजी चालीसा’ रचने का हुनर सीखना चाहता है। ज्यों ही वह नुक्कड़, हाट और चलते- फिरते कवि सम्मेलन एवं गोष्ठी से वरिष्ठ साहित्यकार होने का तमगा झटक लेता है, दौड़ पड़ता है राजभवन के जगमगाते चौपाल की ओर। सत्यासत्य से दूर, उचितानुचित से परे किसी तथाकथित सामर्थ्यवान के पीछे चिपककर अतिशयोक्ति को भी मात देता हुआ बगुल ध्यान से वांछित खिताब को उड़ा लेता है अपनी झोली में और फिर तटस्थ मुद्रा में परमहंस बन जाता है अगले अवसर आने तक के लिए।
तथाकथित बुर्जी साहित्यकार साहित्य को इतना जटिल बनाकर परिभाषित करते हैं कि साहित्य के पारलौकिक होने का भान होने लगता है। समाज से दूर, सामाजिक सरोकार से दूर, सेठ की तिजोरी और गरीब की झोली से दूर, भूख और रसूख से दूर, विज्ञान और आध्यात्म से दूर, एक वाक्य में कहें तो जन गण मन से दूर। देश की दशा और दिशा पर बात करना इनके लिए अछूत – सा है। गिरते सामाजिक मू्ल्य पर लिखने से इनहें परहेज है। राजनीतिक हलचल का दाग माथे पर लेना नहीं चाहते। धर्म निरपेक्ष होने की आड़ में अधर्म पथ अनुगामी हो रहे हैं। वामपंथ – दक्षिणपंथ से बचने के लिए मानव पंथ से पृथक राह चुन रहे हैं। पंजा, फूल, हाथी, हथौड़ा आदि को काजल मानकर उजले दामन को बचाये रखने की जुगत में पूर्ण सजगता अपना रहे हैं।
मुद्दों को पार्टियाँ पैदा करती हैं और फिर उनकी छीना – झपटी करती हैं। सभी अपने पक्ष में उन मुद्दों को लाना चाहते हैं जिनसे उनका वोट बढ़े और दूसरों का नुकसान हो। जो मुद्दे विरोधियों के गले में फाँस बन सकते हों, उनको बड़े चाव से लपककर भुनाते हैं। सब मिलाकर ये सारे ज्वलन्त मुद्दे जनता के हित अथवा अहित से जुड़े होते हैं और इन्हीं परिवेश में जनता द्वारा समाज की रूप रेखा तय होती है। फिर जब साहित्यकार जन सरोकार के मुद्दों को छूने से डरेगा तो उसके द्वारा विरचित साहित्य उस समाज का दर्पण नहीं हो सकेगा। ऐच्छिक बिम्ब लेकर प्रायोजित प्रतिबिम्ब दिखाने वाला दर्पण कभी भी असल नहीं हो सकता। ‘दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता’ की विशेषता को झुठलाने वाला दर्पण त्याज्य होना चाहिए। अतएव वह साहित्य और उसके सर्जक साहित्यकार भी त्याज्य होने चाहिए जो समाज के वास्तविक बिम्ब को दिखाने का हौसला और इरादा नहीं रखते। सत्ता के उठापटक से स्वयं के हानि – लाभ का गणित लगाते हैं। जब इनका हौसला और इरादा ही नेक नहीं होगा तब ये समाज को उचित दिशा दे ही नहीं सकते बल्कि अनुचित राह दिखाएँगे या दिशाहीन छोड़ देंगे।
अन्तत: आज के साहित्यकारों से आग्रह है कि कर्त्तव्य बोध से विमुख न हों। कबीर, भारतेन्दु, दिनकर व प्रेमचंद द्वारा स्थापित मानक से पल्ला न झाड़ें। जन साधारण की समस्या व अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए जन सरोकार से सम्बंधित सामयिक साहित्य सृजन करें जो समाज का सही मूल्यांकन करे और उचित दिशा दे सके। यदि ऐसा करना सम्भव न हो तो मिथ्या कलम चलाने से अच्छा है कलम को रख देना। हर साहित्यकार को एक बार स्वयं की भूमिका के सम्बंध में स्वयं से सवाल करना चाहिए और मन दृढ़ता से सकारात्मक गवाही दे तो आगे बढ़ना चाहिए। दिनकर जी की अपेक्षा कि ‘जब जब राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य सम्हाल लेता है’ को भी ठोस आधार के साथ पूरा करने का दायित्व साहित्य को ही निभाना होगा।
डॉ. अवधेश कुमार ‘अवध’
साहित्यकार एवं अभियन्ता