कश्मीर घाटी में दो खास परिस्थितियों में ही कहा जा सकता है : “All is well”. पहला है जब मां खीर भवानी के मंदिर में जमा हजारों उपासक निर्बाध दूध चढ़ा सकें। दूसरा जब श्रीनगर के सिनेमा घरों में दर्शकगण फिल्म देख सकें। आज यह दोनों बड़े सुविधापूर्वक से हो रहे हैं। इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण रहा जब अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन G-20 (मई 2024) भी सुचारू रूप से आयोजित हो गया। हालांकि दो-ढाई इस्लामी मुल्कों ने इसमें शिरकत नहीं की। इन सब कारगर तथा कामयाब आयोजनों का श्रेय जाता है पूर्व छात्र नेता और BHU के इंजीनियर भाई मनोज सिन्हा को। अभी तक मेरा आकलन था कि इस अशांत हिमालयी वादी के सफल राज्यपाल केवल मेरे ममेरे भ्राता जनरल कोटिकलापूडी वेंकट (के. वी.) कृष्णा राव ही थे। वे दो बार राज्यपाल नामित हुए थे (1989 में फिर मार्च 1993 में)। जनरल राव भारतीय फौज के छठे सेनापति भी रहे। एकदा राष्ट्रीय दिवस पर सलामी लेते समय बम विस्फोट में वे जान गंवाने से बच गए।
मगर मनोज सिन्हा कश्मीर को विकास पथ पर ले जा रहें हैं। इसके लिए उन्हें इतिहास सदा याद रखेगा। कल ज्येष्ठ माह की अष्टमी (28 मई 2023) थी। तब अपार भीड़ श्रद्धालुओं की पहुंची थी। खीर भवानी मंदिर अब तक सूना पड़ा रहता था। वहां के मुस्लिम फेरीवाले, पटरी दुकानदार और फूलवाले बड़े व्यथित थे। हिन्दू तीर्थयात्री के बूते ही उनकी रोजी चलती थी। इस्लामी आंतकियों से ये सुन्नी खोंचेवाले परेशान रहते थे। मई 1990 में अपनी तीर्थ यात्रा पर हम सपरिवार वहां गए थे। तब आतंक अपने चरम पर था। वहां गर्भगृह में एक बांग्ला साधू से मिला। मैंने पूछा : ”परिसर की स्थिति कब तक सुधरेगी?” उस दौर में इस्लामी दहशतर्गी भयावह थी। वे बोले : ”तीन दशकों बाद मां फिर से नृत्य करेगी।” आज तेंतीस साल हो गये। तीर्थयात्री का तांता लग गया। कश्मीर घाटी में प्रगति हुई है। मनोज सिन्हा इसके नायक हैं। खीर भवानी का अपना महात्म्य, विशिष्टता, गाथा और आकर्षण रहा है। दशकों पश्चात अब मां फिर प्रमुदित हैं। भक्त जन उमड़कर आ रहे हैं। हालांकि महबूबा मुफ्ती का खीर भवानी मां मंदिर में एकदा इबादत के बाद भावुक बयान था : ''पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है।'' वे भी कल भी पधारी थीं। दुबारा वे आईं थीं। श्रीनगर में विगत तीन दशकों में सिनेमा थ्येटरों की हालत बड़ी दयनीय रही। नब्बे के दशक में ग्यारहों हाल बंद कर दिए गए थे। आतंकियों का खौफ रहा। क्या विडंबना है कि 1989 में फिल्म “इंकलाब” यही तैयार थी पर हाल में दिखाई नहीं जा सकी। बम फूट रहे थे। दर्शकों को धमकाया गया कि सिनेमा देखना इस्लाम की खिलाफत है। नतीजन पिछले दस वर्षों से घाटी में चलचित्र कार्य नगण्य था। बात पुरानी है, 1964 की, जब “मंजीरात” शुरू हुई थी। फिर बनी मेहजूद। मनोज सिन्हा के प्रयासों का परिणाम है कि गत सितंबर में मल्टीप्लेक्स खुला। श्रीनगर के शिवपुरा में इनॉक्स भी चालू हो गया। सरकारी सूत्रों के अनुसार गत वर्ष करीब तीन सौ चित्रों का कश्मीर में ही फिल्मांकन किया गया। इस तरह फिल्म पर्यटन भी जोर पकड़ रहा है। बजाय यूरोप के एल्प्स पर्वत श्रंखलाओं के, निर्माता अब वादी में आ रहे हैं। शूटिंग के लिए चहेते स्थल है गुलमर्ग, पहलगाम, श्रीनगर आदि। हालांकि गत वर्ष सीमावर्ती क्षेत्र गुरेज में अनिबरण धर “ओनीर” ने अपनी फिल्म “चाहिए थोड़ा सा प्यार” की शूटिंग की थी। कश्मीर में बडगाम जिले के खान साहिब क्षेत्र में स्थित, (समुद्र तल से 2,730 मीटर की ऊंचाई पर स्थित) श्रीनगर से 42 किमी की दूरी पर, "दूधपत्री" है। इसके नाम का अर्थ है "दूध की घाटी।" दूधपत्री स्थल भी फिल्मांकन हेतु बड़ा मुफीद पाया गया। इसका भी रुचिकर किस्सा है। कहा जाता है कि कश्मीर के प्रसिद्ध कवि और संत " शेख-उल-आलम," शेख-नूर-उद-दीन नूरानी ने यहां प्रार्थना की थी। एक बार जब वह प्रार्थना करने के लिए घास के मैदान में पानी की तलाश में थे तो उन्होंने पानी खोजने के लिए उसने अपनी छड़ी से जमीन में छेद किया। दूध निकला। उन्होंने दूध से कहा कि यह केवल पीने के काम आता है न कि स्नान के लिए। यह सुनकर, दूध ने तुरंत अपनी स्थिति को पानी में बदल दिया, और घास के मैदान का नाम "दूधपथरी" हो गया। कश्मीर की वादियों तथा भारत के फिल्मी जगत से रिश्ते 72-वर्ष पुराने हैं। तब 1949 में राज कपूर अपनी फिल्म “बरसात” की शूटिंग के लिए वादी में आए थे। उसी दिन से तांता लग गया था बॉलीवुड फिल्मवालों का। कश्मीर लोकेशन की खोज में। “कश्मीर की कली” (1964) में शम्मी कपूर तथा शर्मिला टैगोर थे। साल भर बाद “जब जब फूल खिले” तथा “बॉबी” भी यहीं बनी थी। हाल ही में मनोज सिन्हा की सरकार ने लगभग 350 फिल्मों की शूटिंग की व्यवस्था कराई है। इतना तो गत चार दशकों में भी नहीं हुआ था। इनमें दक्षिण भारत के निर्माता हैं जिनकी फिल्में तमिल, कन्नड और मेरी मातृभाषा तेलुगु में भी है। बातचीत में टेलीफोन पर मनोज सिन्हा ने इस संवाददाता को बताया भी वादी में फिल्म निर्माता को प्रोत्साहन का मुख्य लक्ष्य यही है कि स्थानीय लोगों को अधिक रोजगार के अवसर मिले। इसीलिए “सिंगल विंडो” (एक ही स्थान से) सारी सुविधाएं उपलब्ध कराने की योजना है। यहां निवेश के अवसर भी व्यापक हैं। मकसद यह भी है कि 2026 तक प्रदेशीय फिल्म सेक्टर को भी बढ़ने का मौका मिलेगा। मनोज सिन्हा आश्वस्त हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नौ वर्ष का शासन पूरा होने के उपलक्ष्य पर समूचे कश्मीर वादी भी भारत के विकास की दौड़ में शामिल हो गई है।
साभार : K Vikram Rao
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