समसामयिक मुद्दा पर कविता
घर से बाहर निकल
सपनों को अपने मारकर
वक्त ये विकराल है
भविष्य का सवाल है
नौकरी को सोच मत
किस्मत को कोस मत
जाना तुझे है उस डगर
बिना किए अगर मगर
हुक्काम का है हुकम
कहना भी मत कि है जुलुम
बैठा लो अपने जेहन
रख जिंदगी इनको रेहन
चुपचाप करता रह सहन
मरेंगे तुमको झोंक कर
अग्निपथ, अग्निपथ अग्निपथ
कोशिशों में तू गला
सांचों में बस तू जा ढ़ला
न सोच न विचार कर
दिया है जो स्वीकार कर
अंध भक्त रह बना
रख तेरा सीना तना
संधान नमो का अचूक
होगी ना ज़रा सी चूक
जीवन है क्या ये सोच मत
बनाया तेरे लिए अनत
अग्निपथ….. अग्निपथ
तेरे लिए विशेष है
खिदमत में तेरे पेश है
कहते हैं जीवन व्यर्थ है
जिसका नहीं अर्थ है
बस यही तू याद रख
जिंदा रहता बस वही
जो सर्वथा समर्थ है
वो राजा है और रंक तू
फिर क्यूं सशंक तू
तू आदमी एक आम है
तेरे वोट का ही काम है
तू बस उलझ उलझ के मर,
न हक की अपने बात कर
जो राजा कहे तू मान ले
न व्यर्थ अपनी जान दे
तुझको बनाके अग्निवीर
कर दिया निर्माण पथ
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ
इतिहास बदलता है युवा
गर काल ने उसको छुआ
महाकाल की शपथ
नहीं पियेंगे अब गरल
बैठेंगे नहीं हारकर
गलत का प्रतिकार कर
तनाशाही उखाड़ कर
नव नीड़ का निर्माण कर
विजय ध्वज को थामकर
राजपथ को जामकर
आज लें हम सब शपथ
नहीं सहेंगे अब कपट
उखाड़ फेंकेंगे कमल
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ …….. (लेखक…….. सुधा मिश्रा)