त्वरित टिप्पणी किसान आंदोलन-३ (संजय रिक्थ की कलम से )
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२६ जनवरी से आज तक इस तथाकथित किसान आंदोलन ने लंका के रावण की तरह कई वेष बदले और तरह-तरह से राष्ट्रवादी संस्कृति से ओत-प्रोत वर्तमान भारत सरकार को घुटनों पर लाने की कवायद की। सामान्य लोग भ्रम में रहे कि इसका समर्थन हो कि विरोध। सामान्य लोग सामान्यत: तब आकर्षित होते हैं जब कोई बड़ा कांड हो जाता है। जो लोग राजनीति से प्रेरित हैं वे स्पष्ट हैं। वे शुरू से ही इसके समर्थन में थे क्योंकि उन्हें वर्तमान सरकार का हर विरोधी अपना सगा लगता है। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि आंदोलन के यंत्र क्या हैं।
गांधी सदैव आंदोलन के यंत्रों की शुचिता का ध्यान रखते थे। इस क्रम में वे धोखा खा गए जब उन्होंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन कर दिया। उसी आंदोलन का प्रभाव था कि एक समय कांग्रेसी रहे हेडगेवार गांधी के धुर विरोधी हो गये। गलती किसी से भी हो सकती है। वह माने न माने, ग़लत भी सिद्ध होकर रहता है। गांधी की गलती सन् ४७ में ही सिद्ध हो गयी और आजतक भारत भर में फैले छोटे-छोटे पाकिस्तानों में प्रतिदिन सिद्धि प्राप्त कर रही है।
इस किसान आंदोलन ने भी खूब भ्रम फैलाया। यह कि किसानों की खेत बिक जाएगी, किसान बड़ी कंपनियों के गुलाम बन जायेंगे, इत्यादि-इत्यादि। वे यह भूल गये कि भारत एक समाजवादी लोकतंत्र है। समाजवाद इसकी जड़ों में है। संविधान में है। इसकी प्रकृति में है। समाजवाद की परिकल्पना को हम चाहे विश्व के अन्य देशों में ढूंढते रहें, लेकिन समाजवाद सचमुच हमारी संस्कृति के मूल में है। रामराज्य की अवधारणा समाजवाद नहीं है तो क्या है। सर्वे भवन्तु सुखिन: की अवधारणा समाजवाद नहीं है तो क्या है। अमीर-गरीब हर युग में थे और रहेंगे भी। किन्तु, सत्ता का उद्देश्य क्या है, इससे हमारी नीतियां निर्धारित होती हैं और इसी से हमारे समाज के सिद्धांतों का निर्माण होता है।
इस आंदोलन ने अपनी सफलता के लिए जिन यंत्रों को अपने हृदय में जगह दी उनमें खालिस्तानी तत्व भी हैं, पाकिस्तानी तत्व भी हैं, चाइनीज दलाल भी हैं, और अनपढ़ लोग भी हैं। पत्रकार पूजा पांडे को जिस युवक ने छेड़ा उसका नाम शायद अब्दुल निकला। किसान नेता पन्नू आईएसआई का एजेंट है। वामपंथियों को खुराक चीन से मिलती है। आज भी भारत के कम्यूनिस्टों के बच्चे रूस पढ़ने जाते हैं। पुराना रिश्ता है। आजकल चीनी मदद से चीन सहित विश्व के कोने-कोने में भी पढ़ रहे हैं। इसके अलावा उनलोगों का भी समर्थन रहा जिनकी जमानतें देश की जनता जब्त करवा चुकी है।
लोकदल के अजीत चौधरी (पश्चिमी उत्तर प्रदेश), हरियाणा के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और पंजाब के अकाली दल सहित कांग्रेस का इनको खुला समर्थन रहा है। साथ ही पश्चिमी यूपी में महेंद्र सिंह टिकैत ने किसनों का बड़ा संगठन बनाया जिनके पुत्र हैं राकेश टिकैत। इनके अलावे तस्वीर के कोने की राजनीति करने वाले योगेन्द्र यादव जैसे लोग जो हर आंदोलन में दिख जाते हैं, भी दिखे। गजवा-ए-हिन्द की सेना भी बहती यमुना में हाथ धोने के प्रयास में मुंह काला करा बैठी।
इस प्रकार यह आंदोलन एक तमाशा बन कर रह गया।
अब सूरत-ए-हाल यह है कि स्थानीय लोग इनसे नाराज हैं। वे इन्हें अपनी समस्याएं बताने गये कि जहां दस मिनट में जाना होता था, वहां जाने में एक घंटा लग रहा है। स्थानीय व्यापारियों का धंधा चौपट हो रहा है। मरीज समय पर अस्पताल नहीं पहुंच रहे। आने-जानेवालों को जो तकलीफ हो रही है सो अलग।
मेरे कुछ स्थानीय जानकार बताते हैं कि जब वे #टिकैती #किसानों से आग्रह करने पहुंचे कि इन्हें तकलीफ हो रही है तो इनपर पत्थर बरसाए गये। इस घटना ने हंगामे का रूप ले लिया जिसके कारण पुलिस को आंसू गैस के गोले भी दागने पड़े। भीड़ में से एक व्यक्ति ने अलीपुर के एसएचओ पर तलवार से हमला भी किया।
टिकैत कई दिनों से रह-रह कर साजिश की नयी-नयी थ्योरियां लेकर आते रहे हैं। उनकी नयी थ्योरी यह है कि लोनी के विधायक नंद किशोर गुर्जर के लोगों ने इन लोगों से मारपीट की। जबकि सच इससे बिल्कुल अलग है। लेकिन टिकैत ने इसे ही अपना ब्रह्मास्त्र बनाया और अपने गांव सिसौली के लोगों से भावुक अपील की। आत्महत्या कर लेने का दांव तक खेला। फलस्वरूप भावुक ग्रामीण पुनः सिंघु बोर्डर पर पहुंचने लगे।
ताजे घटनाक्रम के अनुसार वहां अभी भी भ्रम की स्थिति है। स्थानीय लोग क्रोधित हैं। गरीब किसान भयभीत हैं। गुंडे समर्थक मरने-मारने पर उतारू हैं। #शेखूलर जमात लाशों पर फातिहा पढ़ने को बेचैन है और राजनीतिक गिद्ध #सिसौली के मंच से लेकर #ट्विटर पर #भौकाल पसारे जा रहे हैं।
पूरी कथा का लब्बोलुआब यह है कि “माया मिली न राम!”
इस तथाकथित आंदोलन का दुखद अंत स्वाभाविक है।