‘सभी लोग एक दूसरे के कारण नहीं अपितु अपने अपने कारण से सुखीदुखी होते हैं।’
‘काहू न कोउ सुखदुख कर दाता।निज कृत करम भोग सब भ्राता।।’
कल एक मित्र ने कुछ पंक्तियां लिख कर भेजीं-
“मेरा संचित ही अन्य को निमित्त बनाता है।
अन्य का संचित मुझे निमित्त बनाता है।”
समझने के लिहाज से ये पंक्तियां बडी महत्वपूर्ण हैं तथा वस्तुस्थिति पर प्रकाश डालने से उपयोगी है।
दूसरा व्यक्ति मेरे सुखदुख में निमित्त तभी बन सकता है जब मेरा वैसा ही संचित हो।
यदि उस तरह का संचित नहीं है तो कोई भी निमित्त नहीं बन सकता।वह निमित्त बनता है तो मुझे उसे धन्यवाद देना चाहिए क्योंकि उसके कारण मुझे मेरे संचित का पता चल रहा है।वही मेरा अपना स्वज्ञान है(सेल्फनोलेज)।
जो अगला व्यक्ति निमित्त बन रहा है वह भी मेरे संचित के कारण ही पता चल रहा है अर्थात् वह निमित्त भी नहीं है,’निमित्त’ भी मैं स्वयं हूं।
कार्य-कारण दोनों मैं स्वयं हूँ।
ऐसी स्थिति में मुझे अपने को ही जीतना रहा जैसा कि गीता कहती है-
“बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।”
जिसने अपने को जीता वह अपना मित्र,जिसने अपने को नहीं जीता वह अपना शत्रु।
मेरे संचित के कारण मैं ही सुखद,दुखद हूं मेरे खुद के लिये।मेरे अपने कारण असली हैं,दूसरे के कारण झूठे हैं,नकली हैं।यह समझ में आना चाहिए तभी असली सुखद,दुखद अपने आपको जीता जा सकता है बजाय व्यर्थ ही नकली सुखद दुखद को जीतने में लगे रहने के,तदर्थ रणनीतियां बनाते रहने के।
सभी नकली सुखद दुखद को जीतने में लगे हैं इसलिए इतना उपद्रव है।बहुत थोडे लोग ही असली सुखद दुखद स्वयं को जीतने में व्यस्त रहते हैं।
इसमें खास बात यह जानना है कि जब अपना ही कारण समझ में आ जाता है तब दूसरे के साथ क्या किया जा सकता है?उसकी जरूरत भी नहीं है।तब सब कुछ अपने साथ ही किया जा सकता है अर्थात अपने को ही जीतना रहा।नहीं जीता तो हम ही अपने शत्रु सिद्ध होते हैं।
माया को दुस्तर बताने का कारण है सबके मूल में अपना संचय नजर नहीं आता।अन्य व्यक्ति, घटना,परिस्थिति ही मूल कारण रुप मालूम होते हैं।यह झूठ है।
किसी ने कुछ कह दिया मुझे ठेस लगी इसमें मेरा ही कारण है।किसी ने मेरी प्रशंसा कर दी,मैं खुश हो गया और अपने भीतर उस संभावना को तलाशने लगा।अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाने लगा और प्रशंसक को समझदार मानने लगा।कहते भी हैं-‘वह जानता है मुझे,दूसरे नहीं जानते”।
यह समझ नहीं आता कि सब अपना ही खेल है।
अस्तु-जो अपने साथ वही दूसरे के साथ।जैसे अपने सुखदुख में दूसरा निमित्त बनता है,वैसे ही दूसरे के सुखदुख में हम निमित्त बन जाते हैं।दरअसल अपने को निमित्त नहीं मानना चाहिए क्योंकि दूसरे के संचित के कारण ही हम निमित्त मालूम पड रहे होते हैं।
उसका ऐसा संचित न हो तो हम कुछ भी करें हम निमित्त नहीं बन सकते।न हम शांत को अशांत कर सकते हैं,न अशांत को शांत कर सकते हैं।उसे अकेला छोड देना चाहिए।
यह स्थिति समझने योग्य है।यह प्रश्न अक्सर उठता है कि जब दो व्यक्ति आपस में उलझते हैं तब क्या यह महज संयोग है कि दोनों के संचित तथा निमित्त रुप भी ठीक वैसे ही हों?
ऐसा कैसे हो सकता है?
लेकिन यह वास्तविकता है।
यह ईश्वरीय व्यवस्था है।ईश्वर की दृष्टि से सामूहिक,हमारी दृष्टि से व्यक्तिगत।इस ईश्वरीय व्यवस्था द्वारा अपने अपने कर्म एक दूसरे के द्वारा भुगता दिये जाते हैं।जैसे को तैसा मिल जाता है।
व्यक्तिगत व्यवस्था में दूसरे का संचित भी मूलतः अपना ही संचित है।दूसरे का निमित्त बनना वस्तुतः अपना ही निमित्त बनना है।
यह समझना बहुत मुश्किल है कि दूसरे का संचित मूलतः अपना ही संचित है।दूसरा जो कुछ कर रहा है वह हमारी ही चित्तवृत्ति कर रही है।कोई किसीको डांट रहा है,चिढ रहा है और असर हम पर हो रहा है तो उसका कारण वह वृत्ति हमारे भीतर भी मौजूद है।उस रुप में हम असली कारण हैं अत:अपने आपको ही जीतना है।वह डांटने या चिढनेवाला नकली कारण है उस पर अपनी मेहनत बर्बाद करने की जरूरत नहीं।
जरूरत यहां सिर्फ इसी बात की है कि सभी लोग व्यक्तिगत रुप से अपने आपको संभाल लें बजाय दूसरों को कारण समझने की भूल करने के।
यह बहुत जरूरी है।इससे समाधान हो जाता है।
सोचना चाहिए क्यों किसी अशांत व्यक्ति को देखकर हम अशांत हो जाते हैं,क्यों किसी शांत व्यक्ति को देखकर हम शांत हो जाते हैं क्योंकि उसके कारण हमारे खुद के भीतर हैं अतः खुद को ही देखना और समझना चाहिए।
यह न समझने पर किसी और को अशांति का कारण समझकर उससे दूर भागते हैं जबकि दूर खुद से भागना चाहिए जिसका भी कोई अर्थ नहीं।
इसी तरह किसी और को शांति का कारण समझकर हम उस पर निर्भर हो जाते हैं,उसे ढूंढते फिरते हैं जबकि हमारी शांति का असली कारण हम स्वयं होते हैं।
“Perfect peace is the self.”
सबको जो भी होता है उसका मूल कारण सबके भीतर सबके स्रोत में है।(स्रोत एक ही है।)
मेरे कारण दूसरे को भ्रम होता है,दूसरे के कारण मुझे भ्रम होता है।नहीं ऐसा नहीं है।सबका कारण अपने अपने भीतर है।’भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया।’
यंत्रारुढ के समान सब घूम रहे हैं या घुमाये जा रहे हैं।
यह संचित है,यह निमित्त है,यह नियति है।यहाँ कोई न किसीकी जिंदगी बर्बाद कर देता है,न सुधार देता है।
आदमी खुद ही अपने हाथों अपनी जिंदगी बर्बाद करता है नासमझी के कारण और खुद ही अपने हाथों अपनी जिंदगी सुधार देता है अपनी समझदारी के कारण।
यहाँ व्यक्तिगत, सामूहिक हो जाता है,सामूहिक,व्यक्तिगत हो जाता है,ईश्वरीय आयोजन ऐसा ही है।
फिर भी यह सब व्यक्तिगत रुप से ही समझा जा सकता है,सामूहिक रुप से नहीं।सामूहिक रुप से समझने या समझाने की कोशिश करनेवाला भटक जाता है-
व्यक्ति स्वयं ही द्रष्टा-दृश्य रुप में,कार्य-कारण रुप में बंटा होने से।
“Right thinking comes with self-knowledge.
Without understanding yourself,you have no basis for thought; without self-knowledge what you think is not true.”
संकलन:पं०भानू प्रताप चतुर्वेदी